Tuesday, 9 May 2017

कानूनी शिकंजे में एनपीए ?

कानूनी शिकंजे में एनपीए ?

    नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्र में काबिज होने के बाद यह उम्मीद बढ़ी थी कि बड़ी कंपनियों से कर्ज वसूल लिया जाएगा। लेकिन ऋण वसूली दिखाई नहीं दे रही थी। इसके उलट 900 करोड़ का कर्जदार विजय माल्या देष छोड़कर भाग खड़ा हुआ और 2016 में सरकारी बैंकों के गैर निश्पादित (एनपीए) कर्ज में भारी बढ़ोत्तरी हुई। वित्तीय वर्श 2016-17 की अप्रैल से दिसंबर तक यह रकम लगभग बढ़कर एक लाख करोड़ हो गई। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक यह रकम 6.06 लाख करोड़ रुपए हो गई है। वैसे जिन कजों की वापसी की समय सीमा दोबारा तय की गई है या जिन कजों बैंकों ने माफ कर दिया है, उन्हें भी जोड़ दें तो एनपीए की कुल राषि करीब 9.5 लाख करोड़ बैठती है। इन हकीकत से पता चलता है कि समस्या कितनी गंभीर है। अब केंद्र सरकार ने बैंकिंग विनिमय कानून में संषोधन की मंषा जताई है। अनुमान है कि इससे एनपीए से निपटने का एक वैधानिक ढांचा वजूद में आएगा।   
इस तथ्य से सभी भलिभांति परिचित हैं कि बैंक और साहूकार की कमाई कर्ज दी गई धनराषि पर मिलने वाले सूद से होती है। यदि ऋणदाता ब्याज और मूलधन की किस्त दोनों ही चुकाना बंद कर दें तो बैंक के कारोबारी लक्ष्य पूरे नहीं होंगे ? हालात इतने बद्तर हो गए है कि 40 सूचीबद्ध बैंकों का 6,14,872 करोड़ रुपए डूबंत खाते में आ गया है। ऐसी कंपनियों की संख्या लगभग 1100 है, जो वर्शों से किस्त नहीं चुका रही हैं। चूंकि सरकार और बैंक इस कर्ज वसूली के लिए सख्ती से पेष दिखाई नहीं दे रही थे, इसलिए यह आषंका भी पनप रही थी कि सरकार और बैंकों की साठगांठ के चलते आम जनता की गाढ़ी कमाई हड़पने के लिए कुछ बड़े कर्पोरेट घरानों ने यह सुनियोजित ढंग से शड्यंत्र रचा है। किंतु अब कर्ज नहीं लौटाने वाले कर्जदारों को दंडित करने का कानून अस्तित्व में आ रहा है। इसके लिए पहले अध्यादेष आएगा। इसमें ऋण वसूली के क्या प्रावधान हांेगे, यह अभी स्पश्ट नहीं है। इस बावत वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि परंपरा के अनुसार जब किसी प्रस्ताव को राश्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो उसके प्रावधानों का खुलासा राश्ट्रपति की मोहर लगने से पहले तक नहीं किया जाता है।
    फिर भी अंदाजा है कि अध्यादेष लागू होने के बाद बैंक कर्ज वसूली पर व्यापारिक दृश्टि से व्यावहारिक फैसले लेने की स्थिति में होंगे साथ ही जांच एजेंसियों के पास कर्ज नहीं चुका रहीं कंपनियों की वास्तविकता जाने के अधिकार होंगे। एजेंसियां यह भी परख सकेंगी कि कर्ज देने की प्रक्रिया में पारदर्षिता और ईमानदारी बरती गई है अथवा नहीं ? अब भारतीय रिजर्व बैंक भी एनपीए के मामलों में दखल दे सकेगा। रिजर्व बैंक की निगरानी में अनेक निरीक्षण समितियां गठित हांेगी, जो दिए गए कर्ज की मात्रा के आधार पर एनपीए के मामलों में हो रही प्रगति की जांच भी करेंगी।  
     देष के बैंकों में जमा पूंजी करीब 80 लाख करोड़ है। इसमें 75 प्रतिषत राषि छोटे बचतकर्ताओं और आम जनता की है। कायदे से तो इस पूंजी पर नियंत्रण सरकार का होना चाहिए, जिससे जरूरतमंद किसानों, षिक्षित बेरोजगारों और लघु व मंझेले उद्योगपतियों की पूंजीगत जरूरतें पूरी हो सकें। लेकिन दुर्भाग्य से यह राषि बड़े औद्योगिक घरानों के पास चली गई है और वे न इसे केवल दावे बैठे हैं, बल्कि गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जबकि फसल उत्पादक किसान आत्महत्या कर रहा है। एनपीए पर पर्दा डाले रखने के उपाय इस हद तक हैं कि सुप्रीम कोट के कहने के बाबजूद भी सरकार ने उन लोगों के नाम नहीं बताये थे, जो बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार थे। अब चूंकि सरकार खुद वैधानिक पहल कर रही है, तो उम्मीद की जा सकती है कि वह स्वयं उन 1129 कर्जदारों के नाम उजागर करेगी, जिनके बूते साढ़े नौ लाख करोड़ रुपए का कर्ज डूबंत खाते में पहुंचा है। 
जिस वक्त केंद्र में संप्रग की सरकार थी और अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेष की जा रही थी, ठीक उसी वक्त तत्कालीन वित्तमंत्री चिंदबरम ने एक बेलाग सच्चाई से अवगत कराते हुए कहा था,‘गरीब कर्जदारों की वजह से कभी भी बैंकों का हजारों करोड़ रुपए का वैसा नुकसान नहीं हुआ, जैसा किंगफिषर एयरलाइंस के डिफाॅल्टर के कारण हुआ है। यह घटना अपवाद नहीं है, बल्कि ऐसे कई डिफाॅल्टर हैं।‘ इसी समय चिदंबरम ने वित्तीय संस्थानों को सलाह देते हुए कहा था, ‘भारत में गरीब बुरे कर्जदार कतई नहीं हैं। वे ईमानदार हैं। गरीब नैतिक दृश्टि से मजबूत और पारंपरिक ज्ञान में दक्ष हैं, इसलिए इन्हें अधिक कर्ज देने की जरूरत है।‘ लेकिन इन्हें कर्ज लेने में सबसे ज्यादा मषक्कत करनी पड़ती है।
    बावजूद विंडबना है कि औद्योगिक घरानों को आसानी से हजारों करोड़ का कर्ज मिल जाता है, जबकि छोटे कर्जदारों को बैंकों के कई-कई चक्कर लगाने होते हैं। विसंगति यह भी है कि उद्योगों के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज मिलता है। इन बाधाओं की वजह से नवीन उद्यमियों व नवोन्मेशियों को अपना कारोबार षुरू करना ही मुष्किल होता है। घर के लिए कर्ज लेना भी कठिन होता है। यही वजह है कि आम आदमी सूदखोर महाजनों के चगंुल में फंसता जा रहा है। ऐसी विशम कठिनाइयों के चलते माइक्रो फाइनेंस का धंधा पूरे देष में फला-फूला है। जबकि ये 30 फीसदी की ऊंची सालाना ब्याज दर पर गरीब और मध्य वर्ग के लोगों को कर्ज देते हैं। लेकिन यह कर्ज का ऐसा दुष्चक्र है, जिसमें फंसकर व्यक्ति उबर नहीं पाता। यहां तक कि कई कर्जदार आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। इस हकीकत से पता चलता है कि बैंकिंग क्षेत्र कमजोर तबकों का साहरा बनने में नाकाम रहे हैं। जबकि इसके विपरीत यही बैंक धनी वर्ग की सुख-सुविधाएं बढ़ाने,औद्योगिक क्षेत्र के वित्तीय स्रोत खोलने और कुप्रबंधन के चलते डूबने वाली कंपनियों को उबारने का जरिया जरूर बने हैं। लेकिन इस कवायद में बैंकों का एनपीए इतना बढ़ गया कि बैंक तो आर्थिक रूप से खस्ताहाल हुए ही,देष की समूची अर्थव्यवस्था भी डावांडोल है। अब लगता है कि कानून में संषोधन से इस मनमानी पर लगाम लगेगी।
    कर्ज का सूद समेत नहीं लौटने का असर नई और अधूरी परियोजनाओं पर पड़ रहा है। दरअसल,कर्ज के रूप में दी गई धनराषि के लौटने से ही उसका फिर से निवेष संभव है। इस समस्या को समझते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बैंकों को सचेत करते किया है कि ‘अगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पर्याप्त स्वायत्तता के बावजूद कर्ज वसूली नहीं कर पा रहे हैं तो निष्चित ही प्रमुख दोश उनके प्रबंधन का है।‘ इस नाते एनपीए की समस्या को नीतिगत स्तर पर देखने की जरूरत थी, जिसे अब देखा-परखा जा रहा है। भारत में किसी कंपनी को दिवालिया घोशित करने और उसकी संपत्ति की नीलामी की प्रक्रिया पूरी करने में लंबा समय लगता है। यह सच्चाई किंगफिषर के मामले में सामने आ चुकी है। नियमों में षिथिलता के चलते ही देष की अदालतों में दिवालिया घोशित करने और संपत्ति की कुर्की से जुड़े 60 हजार प्रकरण विचाराधीन हैं। लिहाजा इन लचर नियमों को ‘चैक बाउंस‘ से संबंधित मामलों की तरह चुस्त-दुरूस्त करने की जरूरत है। इस दृश्टि से बैंक द्वारा एक ही कंपनी और कंपनी समूह को कर्ज देने की सीमा भी निर्धारित करना जरूरी है। फिलहाल कोई बैंक अपनी कुल पूंजी का 25 प्रतिषत तक सिर्फ एक कंपनी को और 55 फीसदी तक किसी एक कंपनी समूह को कर्ज दे सकता है। यह लोच बैंक अधिकारियों को उदारता से ऋण मंजूर करने का अधिकार देता है। बैंकों में कदाचरण भी ऐसे ही झोलों के चलते पनपा है। बैंक प्रबंधक की जबावदेही,सुनिष्चित करने और कर्ज नहीं चुकाने वाले दोशी पर दंडात्मक कार्यवाही के कानूनी उपायों की इसीलिए जरूरत थी। हकीकत तो यह है कि बैंकों के पास धन वसूलने की उचित प्रणाली भी मौजूद नहीं है। अब कानून में संषोधन के बाद कर्ज वसूली के नए प्रावधान क्या किए गए हैं, यह अध्यादेष का संषोधित प्रारूप सामने आने पर ही पता चलेगा।


प्रमोद भार्गव
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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