आखिरकार बिहार
की राजनैतिक हवाओं में जिसकी महक थी वही हुआ। बुधवार शाम नीतीश कुमार ने
मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देकर महागठबंधन के टूटने का ठीकरा लालू और
कांग्रेस पर फोड़ दिया। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे RJD प्रमुख लालू यादव
के बेटे और बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगने के
सवाल पर नीतीश ने कहा कि उन्होंने तेजस्वी से इस्तीफा नहीं स्पष्टीकरण
मांगा था। उन्होंने कहा कि अगर वे (तेजस्वी और लालू) स्पष्ट कर देते तो
हमें भी एक आधार मिल जाता।
हमें लगा कि उनके पास जवाब नहीं है। ऐसे में हम
सरकार चलाने की स्थिति में नहीं है इसलिए मैंने इस्तीफा दे दिया। यह पहला
ऐसा मामला है जब किसी मुख्यमंत्री ने गठबंधन की सरकार के किसी अन्य सदस्य
पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया हो,
हालाँकि इतिहास में ऐसे कुछ और उदाहरण जरूर मौजूद हैं जब राजनेताओं ने अपने
ऊपर लगे आरोपों के चलते या फिर अन्य मुद्दों पर खुद ही नैतिकता के आधार पर
इस्तीफा सौंपा हो।
न्याय के साथ
विकास का मूलमंत्र अपनाने वाले राजनीति के माहिर खिलाड़ी नीतीश कुमार
राजनैतिक जोखिम लेने से कभी पीछे नहीं हटते, साल 2014 में भी एनडीए से अलग
होने का जोखिम लिए थे और अब महागठबंधन की सरकार में मुख्यमंत्री पद से
स्तीफा देकर दिखा दिए कि वे साहसी राजनेता हैं, तभी तो लोग उन्हें राजनीति
का चाणक्य भी कहते हैं। साल 2014 के जोखिम को तो यह कहकर समझा जा सकता है
कि नीतीश ने राष्ट्रीय स्तर पर खुद की पहचान बनाने को लेकर वह जोखिम लिया
था, लेकिन वर्तमान समय में तो उन्हें राजनीति का महारथी कहना ही उचित होगा।
2014 में एनडीए से अलग होने के नीतीश कुमार के फैसले में बड़ा जोखिम था,
राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनैतिक भूमिका तलाशने में नीतीश ने ये जोखिम
लिया। बिहार में महादलित के नए फॉर्मूले के साथ सोशल इंजीनियरिंग करके वो
एक नया प्रयोग कर रहे थे, बिहार की दस करोड़ से ज्यादा की आबादी में 15
फीसदी हिस्सेदारी दलितों की है, दलित मुख्यतौर पर 22 जातियों में बंटे हैं।
नीतीश ने इन जातियों में अत्यधिक पिछड़े 21जातियों को लेकर महादलित का एक
नया वोटबैंक तैयार किया था। अपने इस वोटबैंक के लिए उन्होंने काम भी किए
थे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उनके फॉर्मूले को फेल कर
दिया, 2009 में 20 सीटें लेकर आने वाली जेडीयू 2014 में सिर्फ 2 सीटों पर
सिमट गई। इस हार के बाद नीतीश कुमार के लिए नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशनी
जरूरी हो गई, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने एक और बड़ा जोखिम
लिया, लालू विरोध की जिस राजनीति के बूते उन्होंने बिहार की सत्ता पाई थी
बदली परिस्थितियों में उन्हीं के साथ दोस्ती कबूल करनी पड़ी, आरजेडी से
दोस्ती का रिस्क लेना इस बार कामयाब रहा। आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस के
महागठबंधन को 178 सीटें मिली, आरजेडी (80 सीट) से कम सीटें (71 सीट) लाकर
भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री और बिहार चुनाव के असली विजेता बने, लेकिन इस
जीत के साथ भी एक अस्वाभाविक दोस्त को साथ लेकर शासन-प्रशासन चलाने पर सवाल
बना रहा, नवंबर 2016 में बिहार में गठबंधन सरकार के सिर्फ एक साल हुए थे,
लालू-नीतीश की नई-नई दोस्ती परवान चढ़ने से पहले ही पटरी से उतरती दिखाई
पड़ रही थी, नीतीश कुमार ने मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले की खुलकर तारीफ
की थी, जिसके बाद उनके बीजेपी के करीब जाने के किस्से नमक-मिर्च लगाकर
मीडिया के साथ ही आमजन में चर्चा का विषय बने हुए थे, तमाम तरह के कयास
लगाए जाने लगे। धारणाएं बनाई जाने लगी कि लालू-नीतीश की दोस्ती मजबूरी की
दोस्ती है जो ज्यादा दिन चल नहीं सकती, बिहार में बीजेपी-जेडीयू का दौर
बेहतर था दोस्ती के नए समीकरण में कुछ भी सहज नहीं है, या 17 साल की दोस्ती
निभाने वाली बीजेपी ही नीतीश की स्वभाविक सहयोगी हो सकती है लालू और उनकी
पार्टी आरजेडी नहीं। दरअसल यही बड़ी मजबूत धारणाएँ हैं जो बिहार में पिछले
दो सालों के दौरान कई वक्त में सच के इर्द-गिर्द दिखी है, मीडिया ही नहीं
आमजन के बीच भी चर्चा का विषय थी।
पिछले दो साल के
दौरान सिर्फ इस दोस्ती को कटघरे में रखकर नीतीश पर न जाने कितनी बार सवाल
उछाले गए हैं, 2015 के बाद बिहार में घटी हर छोटी-बड़ी घटना को लेकर
लालू-नीतीश की बेमेल दोस्ती पर सवाल उठे, फिर चाहे वो सीवान के पत्रकार का
हत्याकांड हो या फिर जेल से आरजेडी के बाहुबलि नेता शहाबुद्दीन और लालू
यादव के बीच फोन पर बातचीत का खुलासा, नीतीश हर बार कानून सम्मत उपाए
निकालकर अपनी साफसुथरी छवि और लालू यादव से अपनी दोस्ती की मर्यादा निभाते
रहे, लेकिन हाल में लालू यादव के परिवार के खिलाफ बेनामी संपत्ति हासिल
करने के आरोप लगे. बेटे, बेटियों के साथ दामाद भी इस घेरे में आए,
भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे लालू परिवार के साथ ने जिस तरह से उनकी बेदाग
छवि को प्रभावित करना शुरू किया, काजल की कोठरी में रहकर खुद को बेदाग रख
पाना आसान नहीं था, इस बदली राजनीतिक परिस्थिति ने नीतीश को एक बार फिर से
बड़ा जोखिम लेने पर मजबूर किया और इस मामले पर जब नीतीश कुमार की चुप्पी पर
सवाल उठे तो उन्होंने सशक्त शासक और कुशल राजनेता की तरह फैसला लिया, अपनी
साफसुथरी छवि के साथ किसी भी तरह का समझौता न किए जाने का जोखिम, एक तरफ
उन्हें नैतिकता के पैमाने पर ऊँचा कद देता है तो दूसरी तरफ महागठबंधन टूटने
में फिर एक नई अप्रत्याशित संभावना टटोलने पर मजबूर भी करता, नीतीश कुमार
ने एक बार फिर दिखा दिया कि उनकी साफसुथरी छवि ही उनकी कुल जमा राजनीतिक
पूंजी है और वे इसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकते हैं।वे खुद को
बेदाग दिखाने की कोशिश में जो कहते हैं वही वही करते भी हैं।
नीतीश कुमार की
इस तरह की राजनीति को उनके चालाकी वाले फैसले के बतौर देखा जाता है, लेकिन
इसे रियलिस्टिक पॉलिटिक्स कहना ज्यादा सही होगा, वो साफगोई से अपनी बात
रखते हैं, सिर्फ खुद को विरोधी दिखाने के लिए किसी भी मुद्दे पर विरोध नहीं
करते, अपनी राजनीतिक हैसियत का सही आकलन करते हैं और इसी का नतीजा है कि
आरजेडी से कम विधायक होने के बावजूद बिहार सरकार पर उनका पूरा कंट्रोल रहा,
वो बिहार के सबसे ताकतवर राजनीतिक शख्सियत हैं, उनके करीब कोई और दूसरा
नेता नहीं ठहरता। बिहार से बाहर भी गैरबीजेपी दलों में वो एक सर्वमान्य और
सम्मानित नेता हैं, कड़े फैसला लेने से पीछे नहीं हठते।
यह नीतीश की
यथार्थवादी राजनीति ही है कि वो सहजता और विनम्रता से हर बार सटीक निर्णय
लेते हैं। वे हमेशा लोकतांत्रिक राजनीति के निष्ठुर आंकड़े सामने रख देते
हैं और वे जितनी बार भी ऐसा करते हैं उनकी छवि मजबूत ही होती है, शायद
इसलिए क्योंकि इतनी राजनीतिक ईमानदारी किसी दूसरे नेता में नहीं दिखती।
नीतीश की इसी रियलस्टिक पॉलिटिक्स की बदौलत उनकी सहज स्वीकार्यता है। उनकी
तारीफ पीएम मोदी भी करते हैं और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी। जबकि जैसे
केंद्र में पीएम मोदी के सामने कोई नहीं है वैसे ही बिहार में नीतीश के
सामने कोई नहीं है। नीतीश एक छोटे दल का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन उनकी
साफ सुथरी राजनीति ने उन्हें ऊंचा कद दिया है।
नीतीश कुमार को
राजनीति का माहिर खिलाड़ी माना जाता है। उन्होंने न केवल राज्य में
मुख्यमंत्री के रूप में दो पारियां खेली हैं, बल्कि केंद्रीय मंत्री के रूप
में भी वे सफलता के साथ काम कर चुके हैं। बिहार के नालंदा जिले के कल्याण
बिगहा के रहने वाले नीतीश ने बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल
इंजीनियरिंग की पढ़ाई की ही। साल 1974 में जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण
क्रांति’ के जरिए राजनीति का क, ख, ग सीखने वाले नीतीश बिहार के पूर्व
मुख्यमंत्री और अपने जमाने के धाकड़ नेता सत्येंद्र नारायण सिंह के भी काफी
करीबी रहे हैं।साल 1985में नीतीश पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य बने और
उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
हालांकि बीजेपी
के करीब जाने का नीतीश का फैसला उनके लिए उतना फायदेमंद नहीं रहने वाला है
जितना बीजेपी के लिए हैं, क्योंकि बीजेपी के प्रचंड लहर के दौर में नीतीश
कुमार विपक्ष का ऐसा चेहरा हैं जिन्होंने सीधे मोदी से टक्कर लेकर उन्हें
पटखनी देने में कामयाबी हासिल की है। इसी बूते वो 2019 में विपक्ष का चेहरा
बनने की क्षमता रखते हैं, बीजेपी से हाथ मिलाने पर वो बिहार की सरकार तो
बचा लेंगे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा।
मतलब बीजेपी के साथ से नीतीश का विकास संभव नहीं दिखता। वहीं दूसरी बात
2014 के लोकसभा चुनाव में महादलित के फॉर्मूले के फेल हो जाने के बाद नीतीश
कुमार ने महिलाओं के मुद्दों पर फोकस किया। बिहार में शराबबंदी का फैसला
महिलाओं को लुभाने के मद्देनजर लिया गया। इस फैसले ने नीतीश कुमार के लिए
महिलाओं के एक बड़े वोटबैंक को तौर पर तैयार किया है। अगर नीतीश अब बीजेपी
के साथ जाते हैं तो सीधे-सीधे उनके वोटबैंक में सेंध होगी। नीतीश का अपना
कद कमजोर होगा, क्योंकि जिन लोगों ने मोदी के चेहरे को तिलांजलि देकर बिहार
विधानसभा चुनावों में नीतीश को वोट किया था वो अगले चुनावों में बीजेपी और
मोदी की ओर झुकेंगे, नीतीश कुमार के लिए ये अपना जनाधार खोने जैसा होगा।
खैर जो भी हो, लेकिन बिहार के राजनैतिक गलियारों में सियासी मामला गर्मा
गया है, नीतीश के इस्तीफे के तुरंत बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कह
दिया कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में जुड़ने के लिए नीतीश कुमार जी को
बहुत-बहुत बधाई, वहीं बीजेपी की प्रदेश इकाई ने तुरंत अपने समर्थन का ऐलान
कर दिया। तस्वीर कमोबेश साफ हो गई कि बीजेपी ने नीतीश को अपनी तरफ खींच
लिया है। अब देखना होगा कि नीतीश कुमार का यह राजनैतिक दांव उन्हें कितना
सफल बनाता है, देखना होगा कि बिहार की राजनीति में आया यह तूफान कितनों के
आशियाना उड़ा ले जाएगा, किसे बनायेगाऔर किसे मिटाएगा।
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